(एक पूर्ण विस्तृत संस्करण)
गाँव के दक्षिणी छोर पर एक बड़ा बरगद का पेड़ था, जिसकी जड़ें मिट्टी से बाहर झाँक रही थीं। इसी पेड़ के नीचे एक बूढ़ा व्यक्ति, रघु, हर सुबह अपनी जगह पर बैठ जाता। उसकी हालत देखकर कोई भी समझ सकता था कि जीवन ने उसके साथ अन्याय किया है। उसके कपड़े फटे-पुराने थे, बाल बेतरतीब थे और आँखों में एक अजीब सा दर्द था।
रघु का दिन बाँसुरी बजाने से शुरू होता। उसकी बाँसुरी की धुन इतनी मीठी थी कि गाँव के बच्चे, बूढ़े और जवान तक ठिठक कर उसे सुनने लगते। उसकी बाँसुरी में एक कहानी छिपी थी—उसकी अपनी कहानी।
"बाबा, आपकी बाँसुरी तो जादू है। क्या आप हमें सिखा सकते हैं?" बच्चे अक्सर उससे यह सवाल पूछते।
रघु हल्के से मुस्कराता और कहता, "बेटा, पहले तुम्हें सुनना आना चाहिए। जब सुनने का हुनर आ जाएगा, तब बजाना भी सीख जाओगे।"
आज जो रघु फटे हाल में था, वही कभी गाँव का सबसे कुशल कारीगर हुआ करता था। उसकी लकड़ी की मूर्तियाँ सिर्फ गाँव में ही नहीं, बल्कि आस-पास के शहरों में भी प्रसिद्ध थीं। उसकी बनाई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इतनी सुंदर होती थीं कि उन्हें देखने भर से मन को शांति मिलती थी।
रघु का परिवार छोटा था—उसकी पत्नी सरला और बेटा राजू। सरला बहुत ही साधारण और स्नेहमयी महिला थी, जो रघु की कला की प्रेरणा थी। रघु के जीवन का एक ही सपना था कि उसका बेटा पढ़ाई में अव्वल बने और शहर जाकर एक बड़ा आदमी बने।
उसका जीवन पूरी तरह से व्यवस्थित था। हर दिन वह अपनी दुकान पर काम करता, शाम को परिवार के साथ भोजन करता और रात को बाँसुरी बजाते हुए अपने दिन का अंत करता। सरला कहती, "रघु, तुम्हारी बाँसुरी सुनकर तो ऐसा लगता है मानो भगवान खुद तुम्हारे पास आकर बैठ गए हों।"
लेकिन नियति को यह सुखद जीवन स्वीकार नहीं था।
एक दिन अचानक गाँव में भयंकर आग लग गई। रघु की दुकान और घर दोनों जलकर खाक हो गए। आग की लपटों में उसकी मेहनत, उसकी कला और उसके सपने सब राख हो गए। वह और सरला किसी तरह अपनी जान बचाकर बाहर निकले, लेकिन उनकी संपत्ति का एक-एक कण जल चुका था।
आग की त्रासदी के बाद सरला बीमार पड़ गई। उसके पास इलाज कराने के लिए पैसे नहीं थे। रघु ने गाँव वालों से मदद मांगी, लेकिन हर कोई अपनी समस्याओं में उलझा हुआ था।
"रघु, तुम्हारी हालत पर हमें दुख है, लेकिन हम खुद परेशान हैं," लोग यही कहते।
कुछ ही महीनों में सरला का निधन हो गया। रघु पूरी तरह से टूट गया। उसका बेटा, जो पढ़ाई के लिए शहर में था, अब उससे कटने लगा। रघु ने कई बार उसे पत्र लिखा, लेकिन कोई जवाब नहीं आया।
घर और दुकान खोने के बाद रघु ने अपनी कला को फिर से शुरू करने की कोशिश की। लेकिन उसके पास न तो औजार बचे थे और न ही कोई ग्राहक। उसने मजदूरी करने की कोशिश की, लेकिन उम्र और अनुभव ने उसे कमजोर बना दिया था।
आखिरकार, पेट भरने के लिए उसे भीख माँगने पर मजबूर होना पड़ा।
"अगर भगवान ने कला दी है, तो उसे क्यों नहीं इस्तेमाल करते?" एक राहगीर ने ताना मारा।
रघु ने जवाब दिया, "कला को पहचानने वाले लोग नहीं हैं, भाई।"
लेकिन रघु ने भीख माँगते समय भी अपने आत्मसम्मान को गिरने नहीं दिया। वह किसी के सामने हाथ नहीं फैलाता था। बाँसुरी उसकी पहचान बन गई थी। लोग उसकी बाँसुरी सुनने के लिए कुछ पैसे छोड़ देते।
एक दिन गाँव में एक साधु पहुँचा। वह साधु अलग ही व्यक्तित्व का धनी था। उसने रघु की बाँसुरी की मधुर धुन सुनी और उसकी ओर आकर्षित हो गया।
"बेटा, यह धुन इतनी दिव्य है कि यह तुम्हारे जीवन को बदल सकती है।"
रघु ने उदास स्वर में कहा, "बाबा, मेरी जिंदगी में अब कुछ भी बदलने को नहीं बचा है। सबकुछ छीन लिया गया है।"
साधु ने मुस्कुराते हुए एक सोने का सिक्का रघु को दिया।
"यह लो। इसे अपनी कला को फिर से जीवित करने में लगाओ। याद रखो, भगवान उन्हीं की मदद करता है, जो खुद अपनी मदद करने की कोशिश करते हैं।"
रघु ने उस सिक्के को अपनी मुट्ठी में कसकर पकड़ लिया। उसके मन में उम्मीद की एक किरण जगी। उसने उसी रात फैसला कर लिया कि वह अपनी कला को दोबारा शुरू करेगा।
अगले दिन रघु ने बाजार जाकर लकड़ी और औजार खरीदे। उसने दिन-रात मेहनत करके पहली मूर्ति बनाई। वह मूर्ति इतनी सुंदर थी कि गाँव वालों ने उसकी तारीफ की।
"रघु, तुम्हारे हाथों में जादू है। अब इसे बाजार तक ले जाओ," एक पड़ोसी ने सलाह दी।
रघु ने बाजार जाकर अपनी मूर्ति बेची। उसे उम्मीद से ज्यादा पैसे मिले। धीरे-धीरे उसने और मूर्तियाँ बनाईं और उनका कारोबार शुरू किया।
रघु की मूर्तियों की माँग अब बढ़ने लगी। उसकी कला की तारीफ दूर-दूर तक फैलने लगी। एक दिन, एक बड़े व्यापारी ने उसकी मूर्तियाँ खरीदीं और उन्हें शहर के बाजार में ले गया।
"तुम्हारी मूर्तियों में जो जान है, वह आज के कारीगरों में नहीं है," व्यापारी ने कहा।
रघु का नाम और काम अब प्रसिद्ध हो चुका था। उसने अपनी खोई हुई पहचान और आत्मसम्मान को फिर से हासिल कर लिया।
अब रघु अपने गाँव के लिए एक मिसाल बन चुका था। लोग उसकी कहानी सुनकर प्रेरणा लेते। उसने अपने बेटे को खोजने की कोशिश की, लेकिन उसे वह नहीं मिला।
रघु ने अपना बाकी जीवन जरूरतमंदों की मदद करने और अपनी कला को सिखाने में लगा दिया।