महाभारत के वीर योद्धा कर्ण का जीवन संघर्ष और दानशीलता की मिसाल है। उनका पूरा जीवन तिरस्कार और अपमान सहने के बावजूद सत्य, वीरता और दान के मार्ग पर चलने का उदाहरण है। वे जन्म से क्षत्रिय थे, लेकिन समाज ने उन्हें सूतपुत्र समझकर अपमानित किया। इसके बावजूद कर्ण ने अपनी ताकत, परिश्रम और गुणों से इतिहास में अमर स्थान बना लिया।
कर्ण की माँ कुंती थीं, जिन्होंने ऋषि दुर्वासा से एक मंत्र प्राप्त किया था। इस मंत्र की शक्ति से उन्होंने सूर्यदेव को बुलाया और उनसे एक पुत्र प्राप्त किया। यह बालक दिव्य कवच और कुंडल के साथ पैदा हुआ, लेकिन अविवाहित होने के कारण कुंती ने समाज के डर से उसे एक पेटी में रखकर नदी में बहा दिया।
नदी में बहती इस पेटी को अधिरथ नामक सारथी ने पाया और अपने घर ले आए। उनकी पत्नी राधा ने कर्ण को पाला, इसलिए उन्हें 'राधेय' भी कहा जाता है।
कर्ण बचपन से ही महान धनुर्धर बनना चाहते थे। उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा लेनी चाही, लेकिन उन्हें 'सूतपुत्र' कहकर मना कर दिया गया। तब कर्ण ने भगवान परशुराम के पास जाकर उनसे शिक्षा लेने का निश्चय किया।
परशुराम केवल ब्राह्मणों और क्षत्रियों को ही शिक्षा देते थे, इसलिए कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर उनसे धनुर्विद्या सीखी। परशुराम ने उन्हें महान योद्धा बना दिया, लेकिन जब उन्हें कर्ण की असली पहचान का पता चला, तो उन्होंने क्रोध में आकर कर्ण को श्राप दिया कि जब उन्हें अपने सबसे महत्वपूर्ण समय पर शस्त्रों की याद सबसे ज्यादा जरूरत होगी, तब वे उन्हें भूल जाएँगे।
द्रौपदी के स्वयंबर में कर्ण भी भाग लेना चाहते थे, लेकिन द्रौपदी ने उन्हें 'सूतपुत्र' कहकर अस्वीकार कर दिया। यह कर्ण के जीवन का एक और बड़ा अपमान था। इसी अपमान ने उन्हें पांडवों के खिलाफ और दुर्योधन के प्रति वफादार बना दिया।
जब समाज ने कर्ण को तिरस्कृत किया, तब दुर्योधन ने उन्हें 'अंगदेश' का राजा बना दिया। कर्ण ने भी अपनी पूरी निष्ठा से दुर्योधन की मित्रता निभाई। वे सच्चे मित्र थे, और कर्ण ने जीवनभर दुर्योधन का साथ दिया, भले ही उन्हें इसके लिए बहुत कुछ सहना पड़ा।
महाभारत युद्ध में कर्ण कौरवों की ओर से लड़े। वे अर्जुन के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे। लेकिन युद्ध से पहले कई घटनाएँ हुईं, जिन्होंने उनकी शक्ति को कम कर दिया।
महाभारत युद्ध के सत्रहवें दिन कर्ण और अर्जुन के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इसी दौरान कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धँस गया, और जब वे उसे निकालने लगे, तब श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने उनका वध कर दिया।
कर्ण को 'दानवीर' कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने जीवनभर किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया। यहाँ तक कि मृत्यु से पहले भी उन्होंने अपने स्वर्ण दाँत तक दान कर दिए।
कर्ण का जीवन हमें सिखाता है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, हमें अपने गुणों, कर्मों और निष्ठा पर अडिग रहना चाहिए। उन्होंने जीवनभर संघर्ष किया, लेकिन अपने सिद्धांतों को कभी नहीं छोड़ा। उनका नाम महाभारत के महानतम योद्धाओं में सदा अमर रहेगा।
Writer by,
Aman Pandey
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