आज के युग में टेलीविजन और डिजिटल मीडिया हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन यह सवाल भी बार-बार उठने लगा है कि क्या हम अपने ही घर में, अपने ही बच्चों के साथ, चैनल बदलने के लिए मजबूर क्यों हो गए हैं? आखिर क्यों हर ब्रेक में हमें ऐसे विज्ञापन देखने को मिलते हैं जो हमारी संस्कृति, संस्कार और पारिवारिक माहौल के खिलाफ हैं?
भारतीय संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है, लेकिन जब यही स्वतंत्रता अश्लीलता में बदलने लगे तो यह आज़ादी नहीं, अराजकता बन जाती है। आज न्यूज़ चैनल जैसे आजतक, ABP, इंडिया टीवी, जो कभी विश्वसनीय सूचनाओं के केंद्र माने जाते थे, उनके ब्रेक के दौरान भी कंडोम, पर्फ्यूम और अंडरगारमेंट्स के अश्लील विज्ञापन दिखाई देते हैं। क्या इन उत्पादों के प्रचार का कोई सभ्य और सम्मानजनक तरीका नहीं हो सकता?
सोचिए एक 9 साल का बच्चा कार्टून चैनल देख रहा है और उसमें व्हिस्पर या कंडोम का विज्ञापन आ जाए। वह बच्चा न तो उस विज्ञापन को समझ सकता है और न ही उसके सवालों का जवाब देना आसान होता है। ऐसे में एक माता-पिता के रूप में हम क्या करें? क्या टीवी पर कंट्रोल रखना ही एकमात्र उपाय है? या फिर हमें सरकार और मीडिया से इस दिशा में जवाबदेही की मांग करनी चाहिए?
आजकल हर प्रोडक्ट के प्रचार में सेक्सुअल अपील का ज़रूरत से ज़्यादा प्रयोग हो रहा है। चाहे वह एक शेविंग क्रीम हो, पानी की बोतल, परफ्यूम या कपड़े — हर चीज़ को बेचने के लिए महिलाओं के शरीर का उपयोग करना अब सामान्य हो गया है। इसे रचनात्मकता नहीं, बाज़ारू सोच कहा जाना चाहिए।
सनी लियोनी जैसी पूर्व पोर्न स्टार को जब भारतीय टेलीविजन पर परिवारिक समय के दौरान दिखाया जाता है, तो यह केवल नैतिकता का उल्लंघन नहीं बल्कि आम आदमी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। उनका नाम, छवि और ब्रांडिंग एक उद्देश्य के साथ की जाती है — अधिक से अधिक 'अटेंशन' पाने के लिए। लेकिन इसका नुकसान कौन भुगतता है? एक सभ्य, पारिवारिक दर्शक।
कभी दूरदर्शन पर पूरा परिवार रामायण, महाभारत, मालगुड़ी डेज़, साप्ताहिक फिल्में बैठकर देखा करता था। आज वही परिवार अगर न्यूज भी देखना चाहे तो शर्मिंदगी महसूस करता है। क्या यह सामाजिक विकास है या नैतिक पतन?
यह तर्क दिया जाता है कि समय बदल गया है, लोग खुले विचारों वाले हो गए हैं। लेकिन क्या खुले विचारों का मतलब यह है कि सार्वजनिक माध्यमों से अश्लीलता परोसी जाए? क्या संस्कृति के नाम पर सब कुछ स्वीकार कर लेना चाहिए? भारतीय समाज में आज भी करोड़ों लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक मूल्यों को मानते हैं, क्या उनकी भावनाओं का कोई मोल नहीं?
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया (ASCI), और ब्रॉडकास्टिंग कंटेंट कम्प्लेंट्स काउंसिल (BCCC) जैसी संस्थाएं क्या केवल दिखावे की हैं? क्यों नहीं इन विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाया जाता जो फैमिली टाइम के दौरान प्रसारित होते हैं?
OTT प्लेटफॉर्म्स ने सेंसरशिप से बचने का तरीका खोज लिया है। लेकिन अब टीवी भी उसी राह पर चल पड़ा है। अगर डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर पैरेंटल कंट्रोल हो सकता है तो क्या टीवी चैनलों पर फैमिली टाइम स्लॉट नहीं बनाया जा सकता? क्या एक ऐसा कानून नहीं बन सकता जो सुबह 6 बजे से रात 10 बजे तक परिवार के अनुकूल कंटेंट को ही अनुमति दे?
यह समस्या केवल एक व्यक्ति की नहीं, पूरे भारतीय समाज की है। यह उस हर माता-पिता की चिंता है जो अपने बच्चों को एक सुरक्षित और मर्यादित माहौल देना चाहते हैं। यह हर उस व्यक्ति की पुकार है जो अपने 'राइट टू वॉच' के हनन से पीड़ित है।
अगर आप भी इस मुद्दे से पीड़ित हैं, तो इसे एक पोस्ट की तरह इग्नोर न करें। इसे साझा करें, इस पर चर्चा करें, और सरकार, मीडिया और नीति निर्माताओं से जवाब मांगें। यही एकमात्र तरीका है कि हम अपने बच्चों के लिए एक स्वच्छ, स्वस्थ और संस्कारी मीडिया वातावरण तैयार कर सकें।
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